अप्पिको आन्दोलन : दक्षिण भारत का चिपको (Appiko movement in south india)
– चिपको आन्दोलन की तरह दक्षिण भारत के अप्पिको आन्दोलन को अब तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं। दक्षिण भारत में पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने में इसका उल्लेखनीय योगदान है। देशी बीजों से लेकर वनों को बचाने का आन्दोलन लगातार कई रूपों में फैल रहा है।
– 80 के दशक में उभरे अप्पिको आन्दोलन में पांडुरंग हेगड़े जी की प्रमुख भूमिका रही है। कुछ साल बाहर रहने के बाद गाँव लौटे तो इलाके की तस्वीर बदली-बदली लगी। जंगल कम हो रहे हैं, हरे पेड़ कट रहे हैं। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। उन्होंने अपने बचपन में इस इलाके में बहुत घना जंगल देखा था। हरे पेड़, शेर, हिरण, जंगली सुअर, जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह-तरह की चिड़ियाँ देखी थीं। पर कुछ सालों के अन्तराल में इसमें कमी आई।
– इस सबको देखते हुए उन्होंने काली नदी के आसपास पदयात्रा की। उन्होंने देखा कि वहाँ जंगल की कटाई हो रही है। खनन किया जा रहा है। यह आन्दोलन जल्द ही जंगल की तरह फैल गया। यह अनूठा आन्दोलन था, यह चिपको की तरह था। कन्नड़ भाषा में अप्पिको शब्द चिपको का ही पर्याय है।
उद्देश्य जंगल को बचाना, जो हमारे जीने के लिये और समस्त जीवों के लिये जरूरी है। सरकार की वन नीति में बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में सहायक हो। क्योंकि खेती ही देश के बहुसंख्यकों की जीविका का आधार है।
– चिपको आन्दोलन हिमालय में 70 के दशक में उभरा था और देश-दुनिया में इसकी काफी चर्चा हुई थी। पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने का यह शायद देश में पहला आन्दोलन था।
– चिपको से प्रभावित अप्पिको आन्दोलन भी कर्नाटक के सिरसी से होते हुए दक्षिण भारत में फैलने लगा। इसके लिये कई यात्राएँ की गईं, स्लाइड शो और नुक्कड़ नाटक किये गए। सागौन और यूकेलिप्टस के वृक्षारोपण का काफी विरोध किया गया। क्योंकि इससे जैव विविधता का नुकसान होता। यहाँ न केवल बहुत समृद्ध जैवविविधता है बल्कि सदानीरा पानी के स्रोत भी हैं।
– शुरुआती दौर में आन्दोलन को दबाने की कोशिश की, पर यह आन्दोलन जनता में बहुत लोकप्रिय हो चुका था और पूरी तरह अहिंसा पर आधारित था। जगह-जगह लोग पेड़ों से चिपक गए और उन्हें कटने से बचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने हरे वृक्षों की कटाई पर कानूनी रोक लगाई, जो आन्दोलन की बड़ी सफलता थी। इसके अलावा, दूसरे दौर में लोगों ने अलग-अलग तरह से पेड़ लगाए।
इस आन्दोलन का विस्तार बड़े बाँधों का विरोध हुआ। इसके दबाव में केन्द्र सरकार ने माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गाडगिल समिति बनाई। यहाँ हर साल अप्पिको की शुरुआत वाले दिन 8 सितम्बर को सह्याद्री दिवस मनाया जाता है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि जो अप्पिको आन्दोलन कर्नाटक के पश्चिमी घाट में शुरू हुआ था, अब वह फैल गया है। इस आन्दोलन ने एक नारा दिया था उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत से इस्तेमाल करो। यह आन्दोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लम्बे समय तक चल रहा है। अप्पिको को इस इलाके में आई कई विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने में सफलता मिली, कुछ में सफल नहीं भी हुए। लेकिन अप्पिको का दक्षिण भारत में वनों को बचाने के साथ पर्यावरण चेतना जगाने में अमूल्य योगदान हमेशा ही याद किया जाएगा।
